नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल मदरसा सेवा आयोग कानून को संवैधानिक ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि यह कानून अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के अधिकारों का हनन नहीं करता। कोर्ट ने सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में आयोग द्वारा शिक्षकों का चयन और नामित किए जाने को सही ठहराया है। हालांकि, जिन शिक्षकों की भर्ती मदरसों ने मामला लंबित रहने के दौरान स्वयं कर ली थी, वह भी बनी रहेगी। कोर्ट ने कहा है कि इसके बाद कानून के मुताबिक आयोग द्वारा किया गया शिक्षकों का चयन वैध होगा।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्र और यूयू ललित की पीठ ने आयोग द्वारा चयनित मदरसा शिक्षकों और सरकार की याचिका स्वीकार करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट का बंगाल मदरसा सेवा आयोग कानून 2008 के प्रावधान रद करने का फैसला खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कानून किसी तरह से अल्पसंख्यक संस्थाओं के अधिकारों का हनन नहीं करता। शिक्षा की उत्कृष्टता बनाए रखने के उद्देश्य से यह कानून बनाया गया, ताकि काबिल शिक्षकों की भर्ती हो। साथ ही इस कानून में अल्पसंख्यक संस्थानों के हितों का भी ध्यान रखा गया है।
कोर्ट ने कहा कि कानून के मुताबिक आयोग में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होंगे। अध्यक्ष और सदस्यों की योग्यता में कहा गया है कि उन्हें इस्लामिक कानून और संस्कृति की अच्छी जानकारी होनी चाहिए। साथ ही उन्हें शिक्षण के पेशे का अनुभव भी होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि राज्य विधानसभा ने कानून बनाते समय यह ध्यान रखा है कि मदरसा एजुकेशन सिस्टम में योग्य शिक्षकों की भर्ती की जाए।
क्या है मामला
बंगाल सरकार ने सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में शिक्षकों की भर्ती के लिए बंगाल मदरसा सर्विस कमीशन एक्ट 2008 पारित किया। यह आयोग सहायता प्राप्त मदरसों में शिक्षकों की भर्ती के लिए चयन करता था। इसी के जरिये बंगाल के सहायता प्राप्त मदरसों में शिक्षकों की भर्ती होने लगी। कुछ मदरसों ने इस कानून की धारा 8, 10, 11 और 12 को कलकत्ता हाई कोर्ट में चुनौती दी। कलकत्ता हाई कोर्ट की एकल पीठ ने 12 मार्च, 2014 को कानून की उक्त धाराओं को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद कर दिया। इसके खिलाफ कुछ लोगों ने हाई कोर्ट की खंडपीठ में अपील की। लेकिन, खंडपीठ ने भी नौ दिसंबर, 2015 को एकलपीठ के फैसले पर मुहर लगा दी थी।